गीत गज़ल के ओ संशोधक
तथाकथित ओ गुणी समीक्षक
मैं आंसू पीड़ा लिखता हूँ, तुम कहते क्रन्दन करता हूँ
पार समझ का नहीं तुम्हारी, मैं तुमको वन्दन करता हूँ
तुमने कभी पुस्तकों के पन्नों के अन्दर जाकर झांका
सिवा एक अपनी छवि के क्या, तुमने कहीं और भी ताका
कभी उठा कर गर्दन तुमने देखा अपने दांये बांये
कभी किसी सूनी कॉलर तुमने पुष्प कोई ला टांका
धोबी के घर के रखवाले
तुम बजते आड़े चौताले
आज तुम्हारा भाषा की पुस्तक से अनुबन्धन करता हूँ
मैं तुमको वन्दन करता हूँ
तुम जो लिखो खुदा ही बांचे, कहते हो खुद को जन लेखक
जो अपने को दे न सका है एक, वही हो तुम उपदेशक
जाना नहीं लेख कविता में और कहानी में क्या अंतर
लगा रखी सीने पर चिप्पी तुमने अपने ,हो विश्लेषक
सुघड़ पुत्र बैशाख मास के
फूल मेंड़ पर उगी घास के
शीश तुम्हारे फ़ार्महाउस की मिट्टी का चन्दन करता हूँ
मैं तुमको वन्दन करता हूँ
अपनी भाषा में चिरकिन की तुमने पूरी लाज रखी है
तुमने केवल खर दूषण की छवि आंखों में आँज रखी है
सावन के अंधे को दिखता हरा रंग ही हर इक रँग में
यह परिपाटी तुमने अपने जीवन में भी मांज रखी है
ओ दो नम्बर वाले धन्धे
गऊशाला के खोये चन्दे
आज तुम्हारा फ़टी चप्पलों से मैं गठबन्धन करता हूँ
मैं तुमको वन्दन करता हूँ करता हूँ.
13 comments:
:)
आदरणीय राकेश जी,
लम्बे अवकाश के बाद कल से ही नेट पर सक्रिय हुआ हूँ, इस बीच आपकी रचनाओं पर अनुपस्थिति मेरी निजी क्षति है जिसे समय निकाल पर पढूंगा।
यह रचना जैसे बहुत से रचनाकारों की मन की बात या व्यथा लिख दी है आपनें। बहुत से महानुभाव है जिन्होने ठेका ले रखा है कथ्य की विवेचना का और आपके लिखे आम को इमली साबित करने का। उनकी ओल तब खुलती है जब उनकी इमली का स्वाद ले लीजिये....
गीत गज़ल के ओ संशोधक
तथाकथित ओ गुणी समीक्षक
मैं आंसू पीड़ा लिखता हूँ, तुम कहते क्रन्दन करता हूँ
पार समझ का नहीं तुम्हारी, मैं तुमको वन्दन करता हूँ
बेहतरीन।
***राजीव रंजन प्रसाद
नम्रता कोई आपसे सीखे :)
- लावण्या
राजीव रंजन जी से पूर्णतः सहमत होते हुए मैं समझ गया कि इशारा किस ओर है.
सतीश सक्सेना जी भी अपनी साईट के मॉडरेटर होते हुए इशारा समझ ही गये होंगे ..बहुत सही भिगो कर दि्या है वेल डिजर्विंग शॉट..
वेल प्लेड...इसी का इन्तजार था उन बदजुबानों के लिए...आप ही इस तरह सम्मानजनक ढंग से प्रतिरोध करने में सक्षम हैं..काश, हम भी इस गुर में थोड़ा शेयर कर पाते तो कईयों को निपटाते.
बधाई!!!
लावण्या जी सही कह रही हैं कि नम्रता कोई आपसे सीखे.
clap clap and clap
we really need such write ups
http://mypoeticresponse.blogspot.com/
इन कीट-क्रिटिक नामी जन्तुओं पर बड़ा अच्छा प्रहार किया है आपने।
साधुवाद!
बहुत सुंदर ..सही लिखा आपने ..
अपनी भाषा में चिरकिन की तुमने पूरी लाज रखी है
तुमने केवल खर दूषण की छवि आंखों में आँज रखी है
सावन के अंधे को दिखता हरा रंग ही हर इक रँग में
यह परिपाटी तुमने अपने जीवन में भी मांज रखी है
"lajvab.."
Regards
चलो बन्धु स्वीकार है वन्दन,
पर इतना तो हमें बताओ.
बन्द करें करना ही समीक्षा
चाहे जैसे तुम छप जाओ.
तुम छपकर संतोष मनाते,
और कोई कुछ कह नहीं पाते,
अपनी ही वाह-वाही से तुम
खुद की पीठ सदा सहलाओ.
चाहे जैसे तुम छप जाओ!
गीत-गजल अच्छी लिख लेते
तारीफ़ें भी बटोर लेते.
ताली के संग कभी कभी तुम,
तीखी आलोचना पचाओ.
चाहे जैसे मत छप जाओ.
मिथिलांचल (जहाँ सीता मैया की जन्मस्थली है) के विषय में एक बात बड़ी प्रचलित है कि ,यहाँ के लोग अपशब्द भी कहते हैं तो भी वह मीठा ही लगता है.........आपकी नम्रता लाजवाब है.
वैसे कभी कभार इसी तरह रोष में भी आ जाया कीजिये........यह रंग भी अति आनंददायक है.
हा...हा...हा....हा....आज बड़े गुस्से में हो राकेश भाई . मज़ा आगया ! इन घमंडी तथा कथित विद्वानों ने नाश कर रखा है हिन्दी जगत का ! और सीना थोक कर अपने को कवि कहते थकते नही, और विनम्रता और सौम्यता का उपहास उड़ा कर अपने को आलोचक मानते हैं !
आपका आभार इन महानुभावों पर लिखने के लिए आशा है कि आपका यह क्रोधित हास्य हमें आगे भी मिलता रहेगा !
समीर भाई और राजीव रंजन सिंह से सहमत हूँ !
again very nice work!!!!!!!!
Shyari Is Here Visit Jauru Karo Ji
http://www.discobhangra.com/shayari/sad-shayri/
Etc...........
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