जानता संभव, नहीं ये आपका आशीष पायें
गीत मैं फिर भी नये रच गुनगुनाता जा रहा हूँ
शब्द तो कठपुतलियों से लेखनी के हाथ में हैं
जिस तरह चाहे चमत्कॄत ढंग से इनको सजाये
कंगनों की खनखनाहट टाँक दे इनके सुरों में
आंसुओं के रंग भर कर सावनी गाथा सुनाये
उंगलियों पर मैं नियंत्रण कर नहीं पाया अभी तक
इसलिये, जिस राह पर चलती, चलाता जा रहा हूँ
है सभी के चंग अपने, राग अपने ढोल अपने
चाहता हर कोई अपनी ही सदा ढपली बजना
केन्द्र बन आकर्षणों का वाहवाही को बटोरे
कामना रखता सफ़ल हो इस तरह मजमा लगाना
जानता हूँ मैं विलग इस भीड़ से बिल्कुल नहीं हूँ
इसलिये ही डुगडुगी अपनी बजाता जा रहा हूँ
नित्य ही आशा सँवरती हों अलग कुछ भीड़ से हम,
रोज हमने भेष बदले, शीश पर टीके लगाये
गंध में लाकर डुबोये कागज़ी कुछ फूल फिर से
चित्र से आभूषणों के आस के मोती लुटाये
पास में मेरे नहीं है कोई सूखी पंखुड़ी भी
किन्तु फिर भी हार फूलों के चढ़ाता जा रहा हूँ
7 comments:
शब्द तो कठपुतलियों से लेखनी के हाथ में हैं
जिस तरह चाहे चमत्कॄत ढंग से इनको सजाये
कंगनों की खनखनाहट टाँक दे इनके सुरों में
आंसुओं के रंग भर कर सावनी गाथा सुनाये
बहुत खूब लिखा है आपने
ओह ! क्या क्या कह डाला आप ने !!! कुछ कह पाने का सामर्थ्य नहीं है मुझ में, महसूस ज़रूर कर सकता हूँ, सो कर रहा हूँ ....
"अपने बस का काम कर लेता हूँ आसाँ देख कर ..... "
उंगलियों पर मैं नियंत्रण कर नहीं पाया अभी तक
इसलिये, जिस राह पर चलती, चलाता जा रहा हूँ
very very nice
राकेश भाई - अद्भुत - आद्योपांत - बार बार पढने पर भी मन नहीं भरता [- बार बार पढी भी जायगी-] साभार - मनीष
शब्द तो कठपुतलियों से लेखनी के हाथ में हैं
जिस तरह चाहे चमत्कॄत ढंग से इनको सजाये
aapki lekhni prerna hai hum sab ke liye...
इसलिये ही डुगडुगी अपनी बजाता जा रहा हूँ
--मैँ भी साथ में ताल मिलाता हूँ. :) :)
जानता हूँ मैं विलग इस भीड़ से बिल्कुल नहीं हूँ
इसलिये ही डुगडुगी अपनी बजाता जा रहा हूँ
वाह...राकेश भाई...वाह...थोड़े अन्तराल बाद नजर आए हैं आप लेकिन क्या खूब नजर आए हैं...कौन कहता है की शब्द आपके हाथ की कठपुतलियां नहीं हैं? अगर ना होते तो कैसे आप के इशारों पर यूँ नाचते? आप की लेखनी में जो धारा प्रवाह है वो सबसे अलग सबसे अनूठा है...
नीरज
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