मातॄ दिवस एक बार फिर आकर चला गया. फिर इस बार करोड़ो लोगों ने अपनी अपनी मांओं को फूल भेजे, ग्रीटिंग कार्ड भेजे और साथ ही लंच और ब्रंच के साथ मांओं की सराहना की. दिन बीतते न बीतते यह दिन भी एक सौवीं वर्षगांठ के साथ साथ आंकड़ों में बदल गया. कितने टन फूल आयात हुए, कितने गुलदस्ते फ़ेडेक्स- के द्वारा ले जाये गये, रेस्तराओं में कितने प्रतिशत बढोत्तरी हुई, चाकलेट की बिक्री पर क्या प्रभाव पड़ा और बड़े उपभोक्ता सामग्री विक्रेताओं ने इस का कितना लाभ उठाया.
खै्र यह तो आज के पाश्चात्य प्रभाव की त्रासदी है कि इस अमूल्य संपदा की भी मापतोल हो जाती है.
हमारी संस्कॄति और दॄष्टिकोण से
एक शब्द जो " माँ " लिख डला
वह खुद में पूरी कविता है
शब्द इसी में सभी समाहित
इकलौता क्या कह सकता है
कोई उपमा नहीं अलग से
सब उपमायें इससे पूरी
हम सब उसकी परछाईं हैं
बढ़ न सके पल भर भी दूरी.
एक बार फिर नहीं, जितनी भी बार करें कम है नमन.
http://geetkalash.blogspot.com/2008/05/blog-post_11.html
4 comments:
राकेश भाई
आपने मेरे मन की बात कह दी-यह एक शब्द न मात्र कविता है बल्कि सृष्टि का प्रर्यायवाची है या उससे भी व्यापक-बिना उसके सृष्टि भी कहाँ संभव.
बहुत सुन्दर भाव-जितना भी नमन करें कम है.सही कह रहे हैं
सही कहा आपने राकेश जी माँ शब्द ख़ुद में ही एक कविता है जिस के भाव दिल में सीधे उतर जाते हैं
राकेश जी
कितनी अजीब बात है की माँ को याद करने के लिए हम एक दिन निश्चित कर दिए हैं जबकि हर दिन माँ का होता है.ये बाज़ार वाद है और हम इसके एक हिस्से. जो माँ को हर साँस याद ना करे उसके लिए मात्र एक दिवस माँ के लिए समर्पित करना हास्यास्पद है.
नीरज
"एक सौवीं वर्षगांठ के साथ साथ आंकड़ों में बदल गया. कितने टन फूल आयात हुए, कितने गुलदस्ते _ ट्ड - के द्वारा ले जाये गये, रेस्तराओं में कितने प्रतिशत बढोत्तरी हुई, चाकलेट की बिक्री पर क्या प्रभाव पड़ा और बड़े उपभोक्ता सामग्री विक्रेताओं ने इस का कितना लाभ उठाया"
आपकी पीडा एक कवि की गहरी वेदना है..
***राजीव रंजन प्रसाद
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