Friday, July 27, 2007

तलाश

घूमता मैं रहा भोर से सांझ तक, शब्द के रिक्त प्याले लिये हाथ में
कोई ऐसा मिला ही नहीं राह में, भाव लेकर चले जो मेरे साथ में
अजनबी राह की भीड़ में ढूँढ़ता कोई खाका मिले जिससे पहचान हो
भूमिका बन सके फिर उपन्यास की, बात होकर शुरू बात ही बात में

6 comments:

अनूप शुक्ल said...

गीतकार महाकाव्य लिखे, उपन्यास क्यों?

सुनीता शानू said...

क्या बात है गुरूदेव बहुत सुन्दर लिखा है आपके पास भावो कि कमी कहाँ है,
भावो का सागर भरा है आपके हाथ में,
जिसे पुकारेगें वही चल देगा साथ में,
आप खुद महाकाव्य हैं उपन्यास की बात न करें,
नही है कोई अजनबी अब आपकी राह में...

सुनीता(शानू)

Udan Tashtari said...

हम हैं राह में, यूं न निकलने देंगे. तनिक रुकिये...पहचाना हमें???

Mohinder56 said...

राकेश जी,

तलाश (हसरत) ही जीवन को गति देता है... जारी रखें... मिलेगा जो आप चाह्ते हैं

या-रब दुआ-ए-वसल न हर्गिज कबूल हो
फ़िर दिल में क्या रहा जो हसरत निकल गयी

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बढिया!

विजेंद्र एस विज said...

बिल्कुल सही...गीतकार जी अब महाकाब्य की बारी है..उपन्यास की नही...
अपनी पसन्दीदा रश्मिरथी के कुछ खण्ड काव्य भी पढायेँ..यह मेरा आग्रह है आपसे.