Thursday, July 12, 2007

अब लिखने से कतराता हूँ

वैसे तो भाई साहब का आग्रह था कि कुछ लिखूँ और मैने सोचा कि उनका आग्रह मान लूँ. पर इस वक्त की जद्दोजहद के चलते जो लिखने कीकोशिश की तोअसफ़; ही रह गया.

बस यही कह सका कि


यह जो दौर चला है इसमें मोल न कुछ भी है भावों का
इसीलिये मैं लिखते लिखते अनायास ही रुक जाता हूँ

रह रह प्रश्न किया करते हैं शब्द, पॄष्ठ से उठा निगाहें
रोपे थे विरवे तुलसी के, कैसे हुईं कँटीली राहें
उलझी हुई गाँठ सी लगता सर्पीली हर इक पगडंडी
अवरोधों के फ़न फ़ैलाये बढ़ी हुईं झंझा की बाँहें

नहीं समय अब रहा वॄक्ष सा तन कर खड़े हुए रहने का
इसीलिये मैं हरी दूब जैसा, चरणों में झुक जाता हूँ

आक्षेपों के चक्रव्यूह में घिरे हुए हैं सारे चिन्तन
षड़यंत्रों से सांठ गांठ जिनकी, उनका होता अभिनन्दन
सॄजनात्मकता नये हाल में अपना अर्थ गंवाये जाती
दिखते हैं भुजंग ही केवल, जकड़ा हुआ इस कदर चंदन

रोज सुबह आशान्वित होता हूँ, शायद परिवर्तन होगा
और सांझ के होते होते धीरज खोकर चुक जाता हूँ

उठें उंगलियां आज उधर ही, जिधर जरा नजरें दौड़ाईं
अस्तित्वों पर प्रश्न चिन्ह हैं,ब्रह्मा,शिव या कॄष्ण कन्हाई
अपनी ही जड़ पर करने में लगे हुए आघात निरन्तर
और सोचते हैं इनकी ही हो न सकेगी जगत हँसाई

सधे मदारी की चालों से बँधे हुए लगता सब पुतले
जिनमें जुम्बिश कोई नहीं, मैं फ़टकारे चाबुक जाता हूँ

6 comments:

अनूप शुक्ल said...

आप लिखते रहिये। गीत हम गाते नहीं तो कौन गाता।

Anonymous said...

गीतकारजी जमीन से जुड़ी रचना प्रतीक छन्द सब पंसद आये.आपकी सभी रचनायें प्राया एक ही छन्द में होती हैं.हम इन्हें उर्दू में फेलुन फेलुन की आवृतियाँ मानते हैं.जैसे बस्ती बस्ती गाता जाये बंजारा.
दुष्यन्त की ग़ज़ल है-
मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता,
हम घर में भटके हैं कैसे ठौर ठिकाने आयेंगे.
आप लिखने से मत कतरायें जमीन है तो सांप बिच्छू आदमी जानवर सभी होंगे.
आप से हमारी बकौले दुष्यन्त इल्तिजा हैं-
आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख.
घर अँधेरा देख तू आकाश के तारे न देख.
हम आपके मुरीद हो जायेंगे.
आमीन. डॉ.सुभाष भदौरिया अहमदाबाद.

काकेश said...

आप लगे रहिये.हम आते रहेंगे.टिपियायें चाहे नहीं पर आयेंगे जरूर.

Mohinder56 said...

राकेश जी आपकी कविता पढ कर एक कहानी याद आ गयी जिसमें एक साधु नदी में नहा रहा होता है और बहते हुये एक बिच्छू को देख कर अपने हाथ में उठा लेता है.. बिच्छू डंक मारता है और दर्द के मारे साधू के हाथ से बिच्छू पानी में गिर जाता है.. साधू बार बार उसे उठाता है, बिच्छू बार बार काटता है..एक चेला यह देख कर कहता है गुरू जी आप इसे बह क्यों नहीं जाने देते.. साधू जबाब देते हैं इसका स्वभाव है काटने का और मेरा बचाने का.. जब यह अपना स्वभाव नही छोड रहा तो मैं क्यों छोड दूं..
इसलिये आप लिखते रहिये कैसी भी हवा चल रही हो... हम हैं ना आते रहेंगे पढने के लिये

Udan Tashtari said...

कैसी चली है अबकी हवा, तेरे शहर में-

अरे, कैसी भी चली हो, हम तो अपना काम करेंगे. आप लिखते रहें-हम हैं न पढ़ने वाले, गाने वाले, गुनगुनाने वाले, सीखने वाले.

-आप ही नहीं लिखेंगे तो हमारा क्या होगा??

Divine India said...

लिखने से तो कतराते रहे पर लिख ही दिया कुछ ऐसा जिससे हम अक्सर कतराते हैं…।
बेहतरीन रचना…।