मेरा तो बस स्पर्श मात्र है, यह घनश्याम तुम्हीं कह सकते
तुम ही तो कनकी उंगली पर सकल चराचर को धर रहते
मथुरा गोकुल वृन्दावन की, नन्दगांव की वीथि वीथि में
उपवन की अलसाई शीतल कदम्ब कुंज की गहरी छाया
बांसुरिया की टेर निरन्तर एक तुम्हारे इंगित से है
जमना रज ने होकर प्रेरित जिससे प्रतिपल रास रचाया
अधर तुम्हारे बिना खुले ही शत शत गीतायें रच सकते
तुम ही तो कनकी उंगली पर सकल चराचर को धर रहते
संरचना का कारण तुम ही, और अंत भी तुम ही तो हो
तुम बोते नीहारिकाओं में एक सांस में शंख सितारे
आदि अनादि अनंत अंत सब एक तुम्हारे ही परिचायक
तुमने रचे शब्द, वे भी तो वर्णन करते करते हारे
धूप छांह ही तरह रात दिन तुम नूतन लीलायें रचते
तुम ही तो कनकी उंगली पर सकल चराचर को धर रहते
गगनों के क्रम से लेकर विस्तार अगिन लोकों का तुमसे
पलकों के विचलन से थिरकें नभ में लक्ष कोटि गंगायें
शांति,वायु,जल, अग्नि धरा सब और शून्य तुम ही हो केवल
एक तुम्हारे स्पर्श मात्र से रचने लगती हैं रचनायें
एक तुम्हारे स्पर्श मात्र के लिये अहर्निश वन्दन करते
तुम ही तो कनकी उंगली पर सकल चराचर को धर रहते