Monday, May 21, 2007

हिन्दी के विशिष्ट प्रेमी

अभी घर पहुंच कर जूते उतार भी नहीं पाये थे कि फोन की घंटी बजनी शुरू हो गई. एक पांव का जूता उतरा और दूसरे का लटका ही रहा जब हमने दौड़ते दौड़ते जाकर फोने उठाया :-

" हलो ! गीतकार जी बोल रहे हैं न "

" जी हां. हैं तो हम ही " हमने जबाब दिया और सोच में पड़ गये कि यह अजनबी आवाज़ किसकी हो सकती है.

" नमस्कार गीतकार जी. मुझे आपका पता एक चिट्ठाकार भाई से मिला..... " उधर से बात शुरू हुई

" जी " हमने कहा. " बतलायें कि हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं "

" हैं हैं हैं " उधर से आवाज़ आई " दर असल आमरीका मेंविश्व हिन्दी सम्मेलन होने वाला है न, उसी के विषय में आपसे बात करनी थी "

" जी कहिये क्या बात है " ? हम अधीर हो रहे थे. चाय की चाहत परेशान कर रही थी.

चाह त चाय की है नैरन्तर रही, चाह इस पर कोई जोर होता नहीं
भोर संध्या दुपहरी कहीं कोई भी चाय की चाह के बीज बोता नहीं
ये है संजीवनी , ये है निद्रा हरक और तो और सावन की काली घटा
चाय की एक चुस्की लिये बिन कभी आके दामन किसी का भिगोता नहीं

चाय की अधीरता में यह ध्यान ही नहीं रहा कि हमारे विचार होठों से फूट पड़े है. मालूम तब हुआ जब उधर से आवाज़ आई

क्या कह रहे हैं आप, घटा का चाय से क्या ताल्लुक ?

छोड़िये इसे. हम बात टालना चाहते थे.

नहीं नहीं! आपको ये तो बताना ही पड़ेगा.

बात को छोटी करने के उद्देश्य से हमने स्पष्ट किया कि मानसून की हवायें जब हिमालय की शॄंखला से टकरा कर वापिस लौटती हैं तभी घटा बन कर उमड़ती हैं और हिमालय की तराई में ही तो चाय के बागान हैं. तभी तो उन पर होकर जब वापिस आती हैं तभी तो बरस पाती हैं.

खैर अब बताइये . आपने फोन्रे कैसे किया ? हमने पूछा

वे बोले-- साहब जुलाई में न्यूयार्क में हिन्दी सम्मेलन हो रहा है न, आप उसकी समिति में हैं.

जी हां. तो फिर ? हमने पूछा

वे बोले- ऐसा है गीतकारजी. हम पिच्हले तीस वर्षों से हिन्दी की सेवा कर रहे हैं और लोग हमें जानते नहीं. तो सोचा कि आपको इस विषय में बता दें.

हम बोले, ठीक है आप हिन्दी की क्या सेवा कर रहे हैं बताईये ? हमने कभी उनका नाम भी नहीं सुना था पने लगभग पच्छीस वर्षों के अमेरिका प्रवास में हिन्दी के किसी भी सन्दर्भ में.

जी वे बोले, हम हिन्दी के विशेष सेवक है> यूसी. हम पिछले तीस सालों से महीने में एक दिन सिर्फ़ हिन्दी में ही बात करते हैं
अच्छा. हमने उत्सुकता दिखाई. तो कौन कौन शामिल है आपके इस अनुष्ठान में ?

जी हमारे घर के लगभग सभी सदस्य हिन्दी में ही बात करते हैं

अच्छा. किय्तने लोग हैं आपके घर में.

जी मेरी पत्नी और मेरी पत्नी की माँ. दर असल मेरी सास को इंग्लिश नहीं आती.

हमारे सब्र का बाँध अब टूट ही गया. हमने बहाना बनाकर उनसे निजात ली कि हमारा भारत से टेलीफोन आ रहा है इसी विषय में और हम उनसे बाद में बात करेंगें

खैर चाय पीने के बाद जो कलम मचली तो:-

योजना गांव बसने की जैसे बनी
आये, डेरे भिखारी लगाने लगे

कल तलक ऊँट से तन अकेले रहे
कोई समझा न अपने सरीखा कभी
एक भदरंग से रंग में डूब कर
अपनी पहचान करते रहे थे बड़ी
आज जब आईना इनको दिखने लगा
देखते देखते सकपकाने लगे
ज्ञान के , अपने चेहरे, मुखौटे लगा
संत से बन के आसन जमाने लगे

बहती गंगा में हाथों को ये धो सकें
इसलिये ही तटॊ पे ये आने लगे

नाम के ये भिखारी, हैं धन के नहीं
चाहते नाम की पूँछ लम्बी लगे
शोहरतों का पुलन्दा बँधा इक बड़ा
वक्ष पर इनके तमगे सरीखा लगे
इसलिये जैसे देखा लकीरें खिंची
नीले कागज़ पे, तस्वीर बनने लगी
भावना इनके भाषा से अनुराग की
तोड़ कर बाँध सहसा उफ़नने लगी

सर पे इनके रखा जाये कोई मुकुट
धक्के दे इसलिये आगे आने लगे

जानते हैं कि होते सभा भंग ये
फिर से कोटर में अपने दुबक जायेंगे
ये लगाये हैं हिन्दी की बैसाखियां
अपने पांवों पे दो पग न चल पायेंगे
सावनी दादुरों के ये पर्याय हैं
इनकी अपनी नहीं अस्मिता शेष है
कल थे जयचंद ये, आज भी हैं वही
फ़र्क इतना कि बदला हुआ भेष है

एक श्रोता मिला तो ये विरुदावली
चारणों सी स्वयं की सुनाने लगे

Tuesday, May 15, 2007

ग़ज़ल बन गई

आपकी दॄष्टि का जो परस मिल गया, फूल की एक पांखुर कमल बन गई
आपका हाथ छूकर मेरे हाथ में भाग्य की एक रेखा अटल बन गई
शब्द की यह लड़ी जो रखी सामने, हो विदित आपको यह कलासाधिके
आपके पग बँधी थी तो पायल रही, मेरे होठों पे आई गज़ल बन गई

मुक्तक महोत्सव-३८ से ४२ तक

मित्रों,
इस सप्ताह के ५ मुक्तक आपकी सेवा में पेश हैं. आशा है टिप्पणियों के माध्यम से आप इस महोत्सव को सफल बनायेंगे.

मुक्तक महोत्सव



आप की प्रीत ने होके चंदन मुझे इस तरह से छुआ मैं महकने लगा
एक सँवरे हुए स्वप्न का गुलमोहर, फिर ओपलाशों सरीखा दहकने लगा
गंध में डूब मधुमास की इक छुअन मेरे पहलू में आ गुनगुनाने लगी
करके बासंती अंबर के विस्तार को मन पखेरू मेरा अब चहकने लगा



तुम्हारा नाम क्यों कर लूँ, मेरी पहचान हो तुम तो
कलम मेरी तुम्ही तो हो, मेरी कविता तुम्ही से है
लिखा जो आज तक मैने , सभी तो जानते हैं ये
मेरे शब्दों में जो भी है, वो संरचना तुम्ही से है



मेरी हर अर्चना, आराधना विश्वास तुम ही हो
घनाच्छादित, घिरा जो प्यास पर, आकाश तुम ही हो
मेरी हर चेतना हर कल्पना हर शब्द तुमसे है
मेरे गीतों के प्राणों में बसी हर सांस तुम ही हो



आपके पन्थ की प्रीत पायें कभी, आस लेकर कदम लड़खड़ाते रहे
आपके रूप का गीत बन जायेंगे, सोचकर शब्द होठों पे आते रहे
आपके कुन्तलों में सजेंगे कभी, एक गजरे की महकों में डूबे हुए
फूल आशाओं के इसलिये रात दिन अपने आँगन में कलियाँ खिलाते रहे



मैं खड़ा हूँ युगों से प्रतीक्षा लिये, एक दिन आप इस ओर आ जायेंगे
मेरे भुजपाश की वादियों के सपन एक दिन मूर्तियों में बदल जायेंगे
कामनाओं के गलहार को चूमकर पैंजनी तोड़िया और कँगना सभी
आपकी प्रीत का पाके सान्निध्य पल, अपने अस्तित्व का अर्थ पा जायेंगे



* ** * * ** *


Sunday, May 13, 2007

मातृ दिवस विशेष: मुक्तक

कोष के शब्द सारे विफ़ल हो गये भावनाओं को अभिव्यक्तियाँ दे सकें
सांस तुम से मिली, शब्द हर कंठ का, बस तुम्हारी कॄपा से मिला है हमें
ज़िन्दगी की प्रणेता, दिशादायिनी, कल्पना, साधना, अर्चना सब तुम्हीं
कर सकेंगे तुम्हारी स्तुति हम कभी, इतनी क्षमता न अब तक मिली है हमें

Friday, May 11, 2007

एक मुक्तक और एक गज़ल

दिन

किरणों की ले कलम धूप की स्याही से करता हस्ताक्षर
मिटा रहा रजनी के पल को उषा रंग की हाथ ले रबर
पलकों की कोरों के आंसू को अपना कर सके आईना
इस उधेड़बुन में रहती है रोज सुबह से सांझ ये दुपहर.

मांगे है

जो भी मिलता, हाथ बढ़ाकर लगता है कुछ मांगे है
इस बस्ती में मांग, दयानतदारी की हद लांघे है

उठापटक की राजनीति सी है जीवन की राह गुजर
दिन को रात, रात दिन को अब, नित सूली पर टांगे है

कौन चला है कितना पथ पर यह तो कोई सोचे ना
है उधेड़-बुन कौन यहाँ पर किससे कितना आगे है

कोयले की खदान सी काली रात न पत्ता भी हिलता
एक विरहिणी आस और बस इक मेरा मन जागे है

बिछी हुई है शाह राह सी लंबी सूनी तन्हा सांझ
लम्हा लम्हा यहाँ याद की बन्दूकों को दागे है

-----------------------------

Monday, May 7, 2007

शुभ आशीष तुम्हें देता हूँ

हमारे चिट्ठाकार समूह के वरिष्ठ श्री अनूप शुक्लाजी उर्फ़ फ़ुरसतियाजी की भतीजी स्वाति का शुभ विवाह निष्काम के साथ हो रहा है.

इस अवसर पर ~नव दम्पत्ति को सादर शुभ आशीष

सदा रहे मंगलमय जीवन
शुभ आशीष तुम्हें देता हूँ

बिछें पंथ में सुरभित कलियाँ
रसमय दिन हों रसमय रतियाँ
रसभीनी हो सांझ सुगन्धी
गगन बिखेरे रस मकरन्दी
जिसमें सदा बहारें झूमे
ऐसा इक उपवन देता हूँ

सदा रहे मंगलमय जीवन
शुभ आशीष तुम्हे देता हूँ

जो पी लें सागर से गम को
धरती पर बिखरे हर तम को
बँधे हुए निष्काम राग में
छेड़ें प्रीत भरी सरगम को
जो उच्चार करें गीता सा
ऐसे अधर तुम्हें देता हूँ

सदा रहे मंगलमय जीवन
शुभ आशीष तुम्हें देता हूँ

जो सीपी की आशा जोड़े
लहरों को तट पर ला छोड़े
जो मयूर की आस जगाये
सुधा तॄषाओं में भर जाये
जिसमें घिरें स्वाति घन हर पल
ऐसा गगन तुम्हें देता हूँ

सदा रहे मंगलमय जीवन
शुभ आशीष तुम्हें देता हूँ

सुरभि पंथ में रँगे अल्पना
मूरत हो हर एक कल्पना
मौसम देता रहे बधाई
पुष्पित रहे सदा अँगनाई
फलीभूत हो निमिष निमिष पर
ऐसा कथन तुम्हें देता हूँ

सदा रहे मंगलमय जीवन
शुभ आशीष तुम्हें देता हूँ

Tuesday, May 1, 2007

कली को कैसे उमर मिले

कई दिनों से इधर उधर की बातें सुनाई दे रही थीं. वैसे हमने ऊटपटाँग बातों को पढ़ना तो छोड़ ही दिया है परन्तु फिर भी कभी कभी हवा के साथ उड़ते हुए छींटे इधर आ जाते हैं. अब ऐसे ही किसी एक छींटे ने सोई हुई पलकों पर दस्तक दी तो हुआ यह कि शब्द होठों से स्वत: ही निकल पड़े

स्वप्न तू अपने नित्य सम्भाल
न बदलेगा लगता ये हाल
चमन ही हुआ लुटेरा आज
कली को कैसे उमर मिले

भीड़ भीड़ बस भीड़ हर तरफ़ चेहरा कोई नहीं है
हर पग है गतिमान निरन्तर, ठहरा कोई नहीं है
सिसके मानव की मानवता, खड़ी बगल में पथ के
सुनता नहीं कोई भी सिसकी,बहरा कोई नहीं है

विरहिणी छोड़ आज ये गांव
ढूँढ़ मत अंगारों में छांव
रखे यदि इधर किसी ने पांव
पांव रखते ही पांव जले

सरगम की चौखट पर छेड़ो नहीं रुदन की तानें
महली राजदुलार, तपन कब मरुथल की पहचाने
जिनके द्वारे पर बहार आकर के चंवर डुलाती
वे सुमनी सुकुमार कहो कब व्यथा बबूली जाने

यहां करुणा तालों में बन्द
रोशनी को जकड़े प्रतिबन्ध
करो तुम स्वयं आज अनुबन्ध
लगोगे इनके नहीं गले

कोई सभासद नहीं आज इस राजसभा में बाकी
हर जन सिंहासन की खातिर करता ताकाझांकी
चन्दा का जो मुकुट लगाये बैठे हुए यहाँ पर
लूटी गई उन्ही के द्वारा ही अस्मिता विभा की

आवरण बना ईश का नाम
कटी है नित्य भोर व शाम
कहें निज गॄह को तीरथ धाम
झूठ में सने हुए पुतले

चमन ही हुए लुटेरे आज, कली को कैसे उमर मिले

मुक्तक महोत्सव-३३ से ३७ तक

मित्रों,
इस सप्ताह के ५ मुक्तक आपकी सेवा में पेश हैं. आशा है टिप्पणियों के माध्यम से आप इस महोत्सव को सफल बनायेंगे.

मुक्तक महोत्सव



था गणित और इतिहास-भूगोल सब, औ' पुरातत्व विज्ञान भी पास था
भौतिकी भी रसायन भी और जीव के शास्त्र का मुझको संपूर्ण अहसास था
अंक, तकनीक के आँकड़ों में उलझ ध्यान जब जब किया केन्द्रित ओ प्रिये
थीं इबारत किताबों में जितनी लिखीं, नाम बन कर मिली वे मुझे आपका



तूलिका आई हाथों में जब भी मेरे, कैनवस पर बना चित्र बस आपका
लेखनी जब भी कागज़ पे इक पग चली, नाम लिखती गई एक बस आपका
चूड़ियों की खनक, पायलों की थिरक और पनघट से गागर है बतियाई जब
तान पर जल तरंगों सा बजता रहा मीत जो नाम है एक बस आपका



कनखियों से निहारा मुझे आपने
राह के मोड़ से एक पल के लिये
मनकामेश्वर के आँगन में जलने लगे
कामना के कई जगमगाते दिये
स्वप्न की क्यारियों में बहारें उगीं
गंध सौगंध की गुनगुनाने लगी
आस की प्यास बढ़ने लगी है मेरी
आपके साथ के जलकलश के लिये



आप पहलू में थे फिर भी जाने मुझे क्यूँ लगा आप हैं पास मेरे नहीं
थे उजाले ही बिखरे हुए हर तरफ़, और दिखते नहीं थे अन्धेरे कहीं
फूल थे बाग में नभ में काली घटा, और थी बाँसुरी गुनगुनाती हुई
फिर भी संशय के अंदेशे पलते रहे,बन न जायें निशा, ये सवेरे कहीं.



आप नजदीक मेरे हुए इस तरह, मेरा अस्तित्व भी आप में खो गया
स्वप्न निकला मेरी आँख की कोर से और जा आपके नैन में सो गया
मेरा चेतन अचेतन हुआ आपका, साँस का धड़कनों का समन्वय हुआ
मेरा अधिकार मुझ पर न कुछ भी रहा,जो भी था आज वह आपका हो गया



* ** * * ** *