Friday, April 27, 2007

जो तुमने कहा है वही कर रहा हूँ


यों तो कोई इरादा नहीं था आज लिखने का. एक सप्ताह की छुट्टी से लौटने के बाद( छुट्टी में यात्रा कैसे हुई यह चित्र से जाहिर है ) आफ़िस में आगत की टोकरी लबाबब भरी हुई थी. साढ़े तीन दर्जन आफ़िस के और पूरे १८७ ईकविता के सन्देशों से निपटने का काम आधा भी नहीं हुआ था. कुल जमा इकत्तीस फोने मेलों का जबाब और फिर पारस्परिक प्रशंसा समूह ( Mutual Admiration Society ) के सभी सदस्यों के चिट्ठे पढ़ना और टिप्पणी करना.


बाबा रे बाबा. दांतो तले पसीना आ गया.


सोच रहा था कि बच कर जैसे तैसे वीक एंड तक निपटा लेंगे और लिखने विखने का काम पंकज और अनूपजी पर छोड़ देंगें. बाकी बातों से सागर भाई और जीतू के साथ रविजी निपट लेंगें. पर कहां साहब. कोई हमारा चैन कैसे देख सकता है. धड़धड़ाता हुआ सन्देश आया. हम तो जा रहे हैं शादी में अपना वज़न बढ़ाने अब आप मोर्चा संभालो और करो सामना तीन दिनों तक चिट्ठों का ( नवोदित कवियों के चिट्ठे भी पढ़ना जरूरी है )


और तो और साहब, चलते चलते एक मुक्तक भी टिका गये.


अब तो लगता है, सूरज भी खफा होता है

जब भी होता है, अपनों से दगा होता है.

सोचता हूँ कि घिरती हैं क्यूँ घटायें काली

क्या उस पार भी, रिवाजे-परदा होता है.


अब मैं सोच रहा हूँ कि भाई साहब ने भी सोचना शुरू कर दिया. भाई अगर आप सोचने लग गये तो बाकी के लोग जो गलियों में, कस्बों में सोचने की दूकान लेकर बैठे हैं, उनका क्या होगा ?


खैर छोड़िये, अब जब फ़ँस ही गये हैं तो हम भी सस्ते में छुटकारा ले रहे हैं बस एक मुक्तक के साथ:


आज तुम्हारी याद अचानक नीरजनयने ऐसे आइ
रामचरित मानस की जैसे मंदिर में गूँजे चौपाई
यज्ञभूमि में बहें ॠचायें मंत्रों की ध्वनियों में घुल कर
प्राची अपने मुख पर ओढ़े ऊषा की जैसे अरुणाई
बस बाकी बाद में






Tuesday, April 17, 2007

मुक्तक महोत्सव-२८ से ३२ तक

मित्रों,
इस सप्ताह के ५ मुक्तक आपकी सेवा में पेश हैं. आशा है टिप्पणियों के माध्यम से आप इस महोत्सव को सफल बनायेंगे.

मुक्तक महोत्सव



चांद बैठा रहा खिड़कियों के परे, नीम की शाख पर अपनी कोहनी टिका
नैन के दर्पणों पे था परदा पड़ा, बिम्ब कोई नहीं देख अपना सका
एक अलसाई अंगड़ाई सोती रही, ओढ़ कर लहरिया मेघ की सावनी
देख पाया नहीं स्वप्न, सपना कोई, नींद के द्वार दस्तक लगाता थका



छंद रहता है जैसे मेरे गीत में, तुम खयालों में मेरे कलासाधिके
राग बन कर हॄदय-बाँसुरी में बसीं, मन-कन्हाई के संग में बनी राधिके
दामिनी साथ जैसे है घनश्याम के, सीप सागर की गहराईयों में बसा
साँस की संगिनी, धड़कनों की ध्वने, संग तुम हो मेरे अंत के आदि के



गीत मेरे अधर पर मचलते रहे, कुछ विरह के रहे, कुछ थे श्रंगार के
कुछ में थीं इश्क की दास्तानें छुपीं,और कुछ थे अलौकिक किसी प्यार के
कुछ में थी कल्पना, कुछ में थी भावना और कुछ में थी शब्दों की दीवानगी
किन्तु ऐसा न संवरा अभी तक कोई, रंग जिसमें हों रिश्तों के व्यवहार के.



आपने अपना घूँघट उठाया जरा, चाँदनी अपनी नजरें चुराने लगी
गुनगुनाने लगी मेरी अंगनाईयां भित्तिचित्रों में भी जान आने लगी
गंध में फिर नहाने लगे गुलमोहर रूप की धूप ऐसे बिखरने लगी
आईने में चमकते हुए बिम्ब को देखकर दोपहर भी लजाने लगी



सावनी मेघ की पालकी पर चढ़ी एक बिजली गगन में जो लहराई है
रोशनी की किरन आपके कान की बालियों से छिटक कर चली आई है
कोयलों की कुहुक, टेर इक मोर की, या पपीहे की आवाज़ जो है लगी
आपके पांव की पैंजनी आज फिर वादियों में खनकती चली आई है.



* ** * * ** *


Friday, April 13, 2007

ये हमारे बस की बात नहीं है

एक सप्ताह हो गया चिन्तन और मनन करते हुए. पहले समीर लाल जी का उपदेश सुना और फिर उसके बाद फुरसतिया जी का विश्लेषण कवि और कविता के बारे में.

रोज सुबह आईने के सामने जाते तो उधर से कोई मुँह चिढ़ाता नजर आता कि मियाँ बड़े बनते रहे हो गीतकार की दुम. अब देखो न इतनी सारी खूबियाँ जो गिनवाई गईं हैं, है क्या उनमे से कोई एक भी है तुम्हारे अन्दर ? कभी जागे हो रात भर ? कभी नाउम्मीदी के दामन से आँखें पोंछी हैं ? और तो और मियाँ खाँ तुमसे ये दो अदद आँखें भी नहीं लड़ाईं गईं और चल दिये झंडा उठाकर कि हम गीतकार हैं.
अरे कभी बेजार होकर फिल्मी गाने गाते कि " तेरी दुनिया में दिल लगता नहीं " हमें पता है कि इश्किया गाने कवि लोग नहीं गाते क्योंकि

वियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजा होगा गान

अब तुमने न आह की न आँसू बहाये, न रातों की नींदें हराम की, फिर कैसे कह रहे हो कि तुम कवि हो ?

हमने हर बार समझाने की कोशिश की , भाई हम अपने आपको कवि कहाँ कहते हैं. अगर कवि होते तो हम भी अतुकांत कवितायें फ़ुरसतियाजी के बताये स्टाईल में करते. प्रयोगवाद के नाम पर कठिन कठिन शब्दों की पुड़िया बना कर उन्हें कुल्लड़ में खँगालते और फिर करीने से लगा कर कहते कि आओ भाई,
हमारा प्रयोग पढ़ो और सुनो और फिर अपना सर धुनो कि हमने क्या लिखा है. यार हमें तो खादी भंडार का रास्ता भी नहीं मालूम, जहाँ से एक अदद कवि वाली वेशभूषा खरीद लाते.

लेकिन साहब , उधर वाला आदमी हमारी सुनने को तैयार नहीं हुआ. कहने लगा कि जब तक एक प्रयोगवादी अतुकांत कविता लिख कर नहीं लाते, तुमसे यह नाम ( गीतकार ) छीन लिया जायेगा. यह भयंकर धमकी सुन कर हमारे होश उड़ना स्वाभाविक था क्योंकि अगर नाम खो गया तो बस :
याद में गीत बजने लगे

नाम गुम जायेगा, चेहरा ये बदल जायेगा
तेरी आवाज़ ही तेरी पहचान है, गये कि रहे

अब हमें नाम तो गुमवाना नहीं इसलिये फौरन एक प्रयोगधर्मी रचना लेकर हाजिर हुए:
संतरा
खाया छमिया ने
फ़ेंका उसका छिलका
अटक गया बबूल में
भिनसारे का चाँद
नदी की नाव
लुटेरों का घर
हाय रे हाय
धनिये की पुड़िया
और तिरछी नजर


अब इतना कह कर हमने आईने की तरफ़ देखा तो पाया कि छह सात लोग और आकर जमा हो गये हैं और तालियां बजा रहे हैं. उधर से वाह वाह की आवाज़ें आ रही थीं. अजी क्या खूब लिखा है. कलम तोड़ के रख दी. अरे साब भावों को अभिव्यक्ति देना तो कोई आपसे सीखे.

आँखें मिचमिव्हा कर देखा हमने कहीं कोई सपना तो नहीं देख रहे हम. नहीं साहब. उधर से बार बार वाह वाह की आवाज़ें आ रहीं थीं. जैसे ही थमी, उधर वाले एक बिम्ब ने कहा अब आप हमारी रचना सुनिये और जैसे हमने आप को दाद दी है वैसे ही आप दें. हम कुछ बोलें इससे पहले ही वे शुरू हो गये

हाथ में
क्या है ?
क्या नहीं है
क्या होना था
चान्द ?
फ़ावड़ा ?
या भावनाओं का तसला ?
उफ़
यह कुंठा
यह संत्रास
रे मन
खांस खांस खांस !!!!


भाई साहब. हमने जैसे ही सुना, अपने हथियार डाल दिये. यह अतुकांत और प्रयोगवाद हमारे बस की बात नहीं है. हमने वापिस अपनी औकात पर आ गये हैं और उन सभी बिम्बों से विदा लेते लेते यह पंक्तियाँ उन्हें समर्पित किये जारहे हैं:-


मान्यवर आप कविता न अपनी पढ़ें
वरना श्रोता हर इक बोर हो जायेगा
आप ज़िद पर अगर अपनी अड़ ही गये
दर्द सर का, सुनें , और बढ़ जायेगा

आपने जिसको कह कर सुनाया गज़ल
वो हमें आपकी लंतरानी लगी
और जिसको कहा आपने नज़्म है
वो किसी सरफ़िरे की कहानी लगे
छोड़िये अपना खिलवाड़, ओ मेहरबां
शब्द भी शर्म से वरना मर जायेगा

टांग तोड़ा किये आप चौपाई की
और दोहों को अतुकान्त करते रहे
शब्दकोशों की लेकर प्रविष्टि जटिल
आप अपने बयानों में भरते रहे
मान लें कविता बस की नहीं आपके
आपके बाप का क्या चला जायेगा

चार तुक जो मिला लीं कभी आपने
आप समझे कि कविता पकड़ आ गई
मान्यवर एक आवारा बदली है वो
आप समझे घटा सावनी छा गई
और ज्यादा सुनेगा अगर आपकी
देखिये माईक भी मौन हो जायेगा

Friday, April 6, 2007

जी हाँ मान गये हम भी

शाम को देर से घर आये. अभी चाय का ख्याल भी नहीं आया था कि जगमगाती हुई रोशनी के साथ घरघराहट की आवाज़ बाहर लान से आने लगी. हम कुछ सोचें इसके पहले ही घंटी बजी. दरवाजा खोला, सामने उड़नतश्तरी लान में उतर चुकी थी और स्वामीजी हमारे दरवाजेपर खड़े थे. देखते ही बोले-

हम्म्म्म्म्म्म्म्म. तो तुम गीतकार हो ?

जी- हमने कहा.

सुनो- वे बोले. हमने नये नियम लिखे हैं गीत और कविता के लिये. अब अगर तुन अपने आप को गीतकार कहलवाना चाहते हो तो पहले हमारे बताये हुए सारे नियम, अधिनियम और उपनियमों का पालन करो.

हम असमंजस में थे कि क्या कहें कि वे फिर बोले. देखो जाकर हमारे चिट्ठे पर पढ़ो कि हमने कैसे उन्ही नियमों के तहद कविता लिखी है और अपनी पहचान बनाई है. इतना कह कर वे लौटे और पलक झपकते उड़नतश्तरी ये जा और वो जा.

हमने सोचा कि चलो देखें कि क्या नियम हैं. पढ़े ( आप सब ने भी तो ) और सोचा कि उनके अनुसार प्रयोग करें. उन्होंने लिखा था कि छत पर जाकर सितारे देखें. अब चूंकि हमारे यहाँ छत पर चढ़ पाना असम्भव है तो हम बाहर लान में निकल लिये कि वहीं से सितारे देखेंगे. कुरता पाजामा तो हमारे पास थे नहीं, इसलिये नाईट सूट पहना हुआ था.

बाप रे बाप. बाहर का तापमान ३३ डिग्री फ़हरनहाइट, आसमान पर बादल छाये हुए हलके हल्के गिरती हुई बर्फ़ की फ़ुहियाँ . सारे नियम धरे के धरे रह गये पर साहब कविता फिर भी बनी-

बादलों से घिरा गगन
दिखे नहीं तारे
गिनती ही भूले हम
सर्दी के मारे
झट से जुकाम हुआ
और ऐसा काम हुआ
नाक लाल हो गई
छींकों के मारे

हमें गर्व हुआ कि अब तो हमें स्वामीजी का आशीर्वाद मिल ही जायेगा. हमने सुबह होते ही फोन घुमाया और अपनी " कविता " सुना दी. सुनते ही भड़क उठे-

तुम तो हमारी लुटिया डुबोने पे उतारू हो रहे हो. इस बकवास को कविता कहोगे तो हम एक चौथाइ चुल्लू के सहारे ही पार हो लेंगे. अरे कविता देखनी है तो अरुणिमा की बात पर जाओ, अन्तर्मन का सहारा लो, दिल के दर्म्याँ झांको ,मेरी कठपुतलियों को देखो और मोहिन्दर से सीखो. कलश से घूँट लगाओ. जाओ दोबारा होमवर्क करके लाओ.

साहब , हम भी मरता क्या न करता के अंदाज़ मेम सब जगह भटके और फिर जो असर हमारे ऊपर हुआ शत नमन पढ़ कर, वो आपके सामने पेश कर रहा हूँ. स्वामीजी से पूर्व स्वीकॄति इसलिये नहीं ली कि डर था कहीं वे फिर अपनी त्यौरियाँ नहीं चढ़ा लें ( यह है बतर्ज़- शत शत नमन तुम्हें करता हूँ )

तुम्हें देख कविता से मेरा नाता, कहने में डरता हूँ
शीश झुका कर चुप रहता हूँ

अमारूपिणे ! रूप तुम्हारा है मसान की बुझी राख सा
उलटे पड़े तवे के पैंदे जैसी अद्भुत छवि तुम्हारी
वाणी जैसे चटक रहे हों धान, भाड़ में भड़भूजे के
बरसातों में टपक रहे छप्पर के जैसी याद तुम्हारी

कोयला कहे तुम्हारे रँग के आगे मैं पानी भरता हूँ

फ़िल्मों की ललिता पवार तुम, र्रामायण की तुम्हीं मंथरा
जो पड़ौस से लड़ने को आतुर रहती है वह भटियारी
घातक हो तुम कोयले की खदान में रिसती हुई गैस सी
तुम्हीं पूतना, तुम्हीं ताड़का, तुम खर-दूषण की महतारी

घटाटोपिणी ! नाम तुम्हारा लेने में भी मैं डरता हूँ

तुम ज्यों सहस कोस पर नंगे पांवों में पड़ गई विवाई
जली आग पर पड़ते जल से उठते धुँए की अँगड़ाई
तुम हो रश आवर के ट्रैफ़िक में जो बढ़ती आपाधापी
तुम्हें देख पावस की काली अँधियरी रातें शरमाईं

शब्द कोश में शब्द न मिलते कितनी मैं कोशिश करता हूँ
बस मैं नमन तुम्हें करता हूँ.


अब क्योंकि यह सब कुछ स्वामीजी के आदेश पर लिखा गया है तो आपको खुली छूट है , चाहे तो इसे अन्यथा लें या न लें. अन्यथा लें तो स्वामीजी को पकड़ लें और उन्हें भुगतान कर दें. हम तो अब निकलते हैं

Thursday, April 5, 2007

मुक्तक महोत्सव-२३ से २७ तक

मित्रों,
इस सप्ताह के ५ मुक्तक आपकी सेवा में पेश हैं. आशा है टिप्पणियों के माध्यम से आप इस महोत्सव को सफल बनायेंगे.

मुक्तक महोत्सव



मन के कागज़ पे बिखरे जो सीमाओं में,रंग न थे, मगर रंग थे आपके
बनके धड़कन जो सीने में बसते रहे,मीत शायद वे पदचिन्ह थे आपके
जो हैं आवारा भटके निकल गेह से आँसुओं की तरह वो मेरे ख्याल थे
और रंगते रहे रात दिन जो मुझे, कुछ नहीं और बस रंग थे आपके



देख पाया है जिनको ज़माना नहीं. रंग थे मीत वे बस तुम्हारे लिये
रंग क्या मेरे तन मन का कण कण बना मेरे सर्वेश केवल तुम्हारे लिये
सारे रंगों को आओ मिलायें, उगे प्रीत के जगमगाती हुई रोशनी
रंग फिर आयेंगे द्वार पर चल स्वयं, रंग ले साथ में बस तुम्हारे लिये



आपके आगमन की प्रतीक्षा लिये, चान्दनी बन के शबनम टपकती रही
रात की ओढ़नी जुगनुओं से भरी दॄष्टि के नभ पे रह रह चमकती रही
मेरे आँगन के पीपल पे बैठे हुए, गुनगुनाती रही एक कजरी हवा
नींद पाजेब बाँधे हुए स्वप्न की, मेरे सिरहाने आकर मचलती रही



मेरी अँगनाई में मुस्कुराने लगे, वे सितारे जो अब तक रहे दूर के
दूज के ईद के, चौदहवीं के सभी चाँद थे अंश बस आपके नूर के
ज़िन्दगी रागिनी की कलाई पकड़, एक मल्हार को गुनगुनाने लगी
आपकी उंगलियाँ छेड़ने लग पड़ीं तार जब से मेरे दिल के सन्तूर के.



आप की याद आई मुझे इस तरह जैसे शबनम हो फूलों पे गिरने लगी
मन में बजती हुई जलतरंगों पे ज्यों एक कागज़ की कश्ती हो तिरने लगी
चैत की मखमली धूप को चूमने, कोई आवारा सी बदली चली आई हो
याकि अंगड़ाई लेती हुइ इक कली, गंधस्नात: हो कर निखरने लगी



* ** * * ** *


Tuesday, April 3, 2007

कविता, कम्प्यूटर और चर्चा

कल शाम को अचानक श्री राकेशजी मिल गये. हम उमेश अग्निहोत्री ( जो छह महीने के बाद भारत से लौटे हैं ) से मिलने गये थे, वहां वे भी पहुंचे हुए थे और बड़ी बदहवासी की हालत में थे. पूछने पर बताया कि आज चिट्ठा चर्चा करने की उनकी बारी है. अधिकतर वे चर्चा अपने लंच समय में प्रारंभ करते हैं और शाम को घर पर पूरी करते हैं. अब शाम को घर तो वे ग्यारह बजे से पहले पहुंचने वाले थे नहीं. हमने कहा कि आप यह जिम्मा किसी और पर क्यों नहीं डालते ( जैसा अक्सर होता है ) तो उन्होंने बताया कि समीर लाल जी को फोने किया तो वे अपने पादुका पुराण के पाठ में व्यस्त थे, फ़ुरसतियाजू को फ़ुरसत नहीं है.

हम भी सुन कर उदास हो गये कि हाय अब चिट्ठा चर्चा मंगलवार के दिन फिर गायब रहेगी. सहानुभूति के शब्दों में हमने कारण पूछा तो बोले कि कम्प्यूटर क्रैश हो गया. अब उनसे सीधे साधे शब्दों की आशा अक्सर होती नहीं है इसलिये हम कुछ काव्यात्मक मूड में उत्तर सुनने के बजाय सीधा साधा लट्ठमार वाक्य सुन कर हतप्रभ रह गये.

हमने कहा- मान्यवर कुछ कलात्मक तरीके से कारण बतायें तो उन्होंने सीधे हमारे ऊपर हुकुम दनदना दिया. आखिर तुम भी तो गीतकार का लेबल लगाये घूम रहे हो. तुम्ही न लिख डालो. तो साहेबान आपकी नजर है पूरा वॄत्तांत:-

एक तरफ़ तो कलापक्ष था
एक तरफ़ तकनीकी ज़िद्दी
दोनों अपनी ज़िद पर अटके
इसीलिये तो क्लैश हो गया
कला पक्ष कविता का भारी
ताव नहीं तकनीक ला सकी
कम्प्यूटर घबराया तब ही
हार्ड ड्राइव संग क्रैश हो गया

उड़नतश्तरी, फ़ुरसतियाजी
सबने था हमको समझाया
जीतू भाई ने नारद के
हाथों संदेशा भिजवाया
पंडित श्री श्रीश ने बोला
रवि रतलामी ने जुगाड़ दी
लेकिन उन सबकी तकनीकें
कविता ने फ़ौरन पछाड़ दीं

यू एस बी में जो बैकाअप था
वो भी सारा ट्रैश हो गया

फ़ाइल सब एक्सेल एक्सेस की
पता नहीं है कहां खो गईं
माऊस को कितना चटकाया
पर डायरेक्ट्री सभी सो गई
न मैकेफ़ी, न ही नार्टन
कोई भी कुछ काम न आया
नीली पड़ गई स्क्रीनों ने
राम भरोसे रह, बस गाया

केवल एक दिखाता कविता
जब लगता रिफ़्रैश हो गया

अब दूजा कम्प्यूटर लायें
इसके सिवा न कोई चारा
कितनी कविता झेल सकेगा
सोच रहा मैं, वह बेचारा
गज़ल, गीत, कविता में चर्चा
और टिप्पणी भी छंदों में
फिर से पत्थर नहलायेंगे
वे गुलाब की रसगंधों में

करें , संभालें बात आप ही
मैं तो बस इम्प्रैस हो गया.

बस इतना ही