Friday, February 25, 2011

आज है बसन्त

आज है बसन्त पर बहार कहाँ महक कहाँ


सूरज के साये में घना अन्धकार है

दिखे नहीं सरसों के फूल कहीं खेतों में

रेतीली माटी का सूखा गिब्बार है



शाखों पर सूनापन छाया है बगिया में

पात पात आतुर है जैसे झर जाने को

पूरब से उठती हैं हवा नहीं बस चीखें

कोयल हर सहमी है, खोये स्वर गाने को

मँड़राते धुँये में कैद दिशायें सारी

बादल की मुट्ठी में धूप बन्द जैसे है

परछाईं परछाईं मौन ताकती रहती

पूछ नहीं पाती है तनिक,हाल कैसे है



पथराई आंखों में जलती उम्मीदों ने

सोख रखी आंसू की बहती हर धार है

दिखे नहीं सरसों के फूल कहीं खेतों में

रेतीली माटी का सूखा गुब्बार है



लील रही बाती को तीली ही जलते ही

तार स्वयं तोड़ रही अपने ही सारंगी

सावन के अन्धों की भीड़ लगी राहों में

जो भी सूरत दिखती,दिखती है बेरंगी

फूलों के दोनों में फूल आक के बस हैं

नागफ़नी छितराई पूरब से पश्चिम तक

आशायें सिमट गईं एक शब्द " इति" में बस

बीत चुके दिवसों के एक पृष्ठ अंतिम पर



घड़ियों की सुईयों के कदम जहाँ आ पहुँचे

कुँये और खाई के बीच की कगार है

दिखे नहीं सरसों के फूल कहीं खेतों में

रेतीली माटी का सूखा गुब्बार है



अचरज,आचारों के मानी के साथ साथ

बदल गई मौसम की झोली की फ़गुनाहट

निधि करके सौंपा था जिसको संस्कृतियों ने

मिलती है नहीं कहीं रिश्तों की गरमाहट

गाथा में बन्द हुई चूनर की गाथायें

पायल के घुँघरू ने संकल्पित मौन किया

आपाधापी का ही राज बढ़ा दिखता है

किसको परवाह कहाँ कौन मरा कौन जिया



जाने है नजर लगी किसकी इस बार इसे

वैसे तो रुत ऐसी आती हर बार है

दिखे नहीं सरसों के फूल कहीं खेतों में

रेतीली माटी का सूखा गुब्बार है



Monday, February 14, 2011

मौसम

बर्फ की एक चादर बिछी देख कर आज आते ही शरमा गई चाँदनी


दूध से थी धुली,ओढ़ कर दूधिया रंग का ही दुशाला रही चाँदनी

कांच जैसी जमी इक नदी में लगी चित्र अपना झलकता हुआ देखने

और उस चित्र को मुस्कुराते हुए आपका नाम देने लगी चाँदनी

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कोई भरता रहा सांस ठंडी तभी ये हवा सर्द कुछ और होने लगी

पास शाखाओं के वृक्ष की जब गई देख कर पत्र बिन उनको रोने लगी

और फिर सर्द आहें उठा लीं लगा अपने सीने से कुछ कसमसाते हुए

थी दुखी इसलिए पास आते ही तन में कई नश्तरों को चुभोने लगी.

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याद आने लगी पास उठती हुई पृष्ठ से कल के लेकर के अंगडाइयां

रंग में डूब कर जैसे ठिठकी रहीं सांझ की थीं क्षितिज तक जो अंगनाइयां

द्वार पर आये कुछ सुर भटकते हुए गुनगुनाते हुए इक नयी सी ग़ज़ल

और फिर खोई धुन को लगी ढूँढने, मौन हो रह गईं थीं जो शहनाइयाँ

Friday, February 11, 2011

कितने दिन बीते

कितने दिन बीते


सूनी आँखों के मरुथल में प्यास लिए जीते

कितने दिन बीते

भाव न उमड़ा करते मन में

इस सूने एकांत विजन में

सावन के भी बादल आते हैं होकर रीते

कितने दिन बीते

नित दिन की बिछती चौसर पर

चलता है गिन गिन कर के घर

मोहरे का बस चल न पाता पर बाजी जीते

कितने दिन बीते

आशंका के विषधर काले

आ अधरों पर डेरा डाले

स्वर न कंठ से बहार आकर बोल सके सीते

पल पल बढ़ते गहन अँधेरे

असमंजस रहता है घेरे

अभिलाषा कान्हा के स्वर में गूंजे फिर गीते