पग में गति आती है, छाले छिलने से..
बिछुड़ नहीं पाया विश्वास डगर में से
भ्रमित नहीं कर सका मुझे कोई दर्पण
पग में गति आती है छाले छिलने से
बाधाओं से लड़ मैं हो जाता चन्दन
पग के छाले बने मेरे स्वर्णाभूषण
स्वर दिया इन्होंने नव गीतों के छन्दों को
नये शिल्प में ढाला दृग के आंसू को
नया अर्थ दे दिया प्रीत की गंधों को
रहा भूलता बिसराता मैं सब अग जग
ठुकराता मिलते विश्रामों का वैभव
पग के छालों को सुविधायें मान लिया
रखा कोष में अपने प्राप्त हुआ यह धन
कब मेरे विद्रोही मन ने स्वीकारा
कटी आस्था टूटी मर्यादा ओढ़ूँ
मैं झरने सा जिधर हुआ मन बढ़ जाता
कभी न ऐसा लगा हठी सम्बल छूड़ूँ
आँधी बरसातों से यह मन डिगा नहीं
तूफ़ानिओं में मेरा निश्चय झुका नहीं
गति मैं लेता रहा छिल रहे छालों से
बाधाओं से झूझ महकता बन चन्दन
मैं पाथेय सजाता हूँ, सज जाते हैं
पथ पर साथ साथ नौचन्दी के मेले
तारे उगने लगते नभ की क्यारी में
मेरे पग के चिह्न डगर पर से ले ले
संध्या नीड़ लिये आती अगवानी में
नई गंध भर जाती निशि की रानी में
गति, गति लेती मेरे पग के छालों से
और चेतना पाया करती नवजीवन
चूड़ी,महावर,काजल,मेंहदी,कुमकुम से
बँधे एक पल, पर मेरे पग रुके नहीं
अवरोधों के झंझावात घने उभरे
पर मेरे संकल्प जरा भी झुके नहीं
मैं बन रहा उदाहरण नव इतिहासों का
गति से रिश्ता जुड़ा हुआ है सांसों का
पग में गति आती है छाले छिलने से
वाक्य हुआ यह यात्राओं का सम्बोधन.
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