Monday, July 8, 2013

फिर से धूप धरा पर उतरी

फिर से  धूप धरा पर उतरी
 
 
बादल का घूँघट उतार कर खोल गगन के वातायन को
फ़ेंक मेघ का काला कम्बल,तोड़ मौसमी अनुशासन को
तपन घड़ें में भर कर रख दी
फ़िर से धूप धरा पर उतरी
 
उफ़नी हुई नदी के गुस्से को थोड़ा थोड़ा सहला कर
वृक्ष विहीना गिरि के तन को सोनहरा इक शाल उढ़ा कर
हिम शिखरों की ओर ताकते हुये तनिक मन में अकुलाकर
छनी हवा से हो गई उजरी
फ़िर से धूप धरा पर उतरी
 
रँगते हुये प्रेमियों के मन में भावों की चित्रकथायें
देते हुये बुलावा अधरों को अब मंगल गीत सुनायें
और नयन में आगत को कर रजताभी नव स्वप्न सजायें
प्राची में लहरा कर चुनरी
फ़िर से धूप धरा पर उतरी
 
पावसान्तक और हिमान्तक होती सुखदा याद कराते
और ग्रीष्म में क्रुद्ध न होगी इतनी अधिक अगन बरसाते
अगर प्रकृति का करते आदर हम सब अपने शीश नवाते
सच्चाई की लेकर पुटरी
फ़िर से धूप धरा पर उतरी

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