व्याकरण से बिंध अधर के
रह गये जब स्वर बिखर के
प्राण ही शब्दित हुये हैं उस घड़ी इक गीतिका में
उंगलियों के सामने आ टिक रहें जब भावनायें
छट्पटायें पंथ में गिर ठीकरों सी कामनायें
व्यूह में आक्षेप के तीखे शरों की घिर झड़ी में
दग्ध पायल सोचती हों किस तरह से झनझनायें
गुम दिशा में हों सवेरे
खिलखिलाते हों अँधेरे
प्राण ही शब्दित हुये हैं उस घड़ी इक दीपिका में
अर्थ के सन्दर्भ भी जब अर्थ खोने लग पड़ें हों
प्रश्न के उत्तर स्वयं ही प्रश्न बन बन कर खड़े हों
नाम अजनबियत लिखे जब परिचयों के पृष्ठ पर आ
यामिनी के स्वप्न जब टूटे सितारों से झड़े हों
रात की गहराई पी कर
आस के अवशेष सी कर
प्राण ही शब्दित हुये हैं उस घड़ी आ चन्द्रिका में
बोध बुनने लग पड़े जब जाल खुद दिन रात छल के
बन रहें अवरोध पथ के अनकिये अपराध कल के
तर-बतर करती रहे नैराश्य की बदली घिरे बिन
और दिन का दीप रह ले रात के ही द्वार जल के
चीरने निस्तब्धता को
छाँटने अस्पष्टता को
प्राण ही शब्दित हुये हैं उस घड़ी आ बोधिका में
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