बादल ले बूँद की कलम
धरती के खुले पत्र पर
लिख रहा है हरित रंग से
प्रीत की नवीन इक कथा
ताप का प्रकोप बो गया
शुष्कियाँ हजार जो कभी
मरुथली हवायें छीन कर
ले गईं श्रंगार जो सभी
रेत के ववंडरों में घुल
रह रहे जो स्वप्न आँख के
बुन रहीं थीं रश्मियां कुपित
जाल हर विहग की पाँख पे
कक्ष से समुद्र के निकल
पथ गगन का लेके आगया
धरती के खुले पत्र पर
यह लिखे, हरी है हर व्यथा
झुनझुनों से पत्र बज उठे
शाख लचलचाई नृत्य में
डबडबाये हो विभोर दृग
सत्य कृत्य देख कथ्य में
रच गईं क्षितिज पे अल्पना
गुनगुनाई देहरी मुदित
आस का खिला जो इक सुमन
हो गया सहस्र से गुणित
बादलों ने फ़िर लिखा उसे
शिंजिनी के पोर से छुआ
धरती के खुले पत्र पर
जो कभी कहीं लिखा ना था
सावनी मल्हार में घुली
भाद्रपद की आस्था सुलभ
डाकिये बना सन्देस ले
मोड़ पर खड़ा हुआ शरद
कामनाओं के नवीन चित्र
आईने में फ़िर सँवर गये
छन्द कालिदास के सभी
होंठ पर पुन: मुखर हुये
ले दिशाओं से उकेरता
धरती के खुले पत्र पर
चित्र वे सुहावने जो थे
कल्पनाओं में यदा कद
राकेश खंडेलवाल
५ जुलाई २०१३
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