उभरा करते भाव अनगिनत मन की अंगनाई में पल पल
कोई बैठे पास चार पल तो थोड़ा सा उसे बताएं
दालानॉ में रखे हुए गमलों में उगे हुए हम पौधे
जिनकी चाहत एक घड़ी तो अपनी धरती से जुड़ पायें
होठों को जो सौंप दिए हैं शब्द अजनबी आज समय ने
उनको बिसरा कर बचपन की बोली में कुछ तो गा पायें
लेकिन ओढ़े हुए आवरण की मोटी परतों के पीछे
एक बार फिर रह जाती है घुट कर मन की अभिलाषाएं
अटके हुए खजूरों पर हम चाहें देखें परछाई को
जो की अभी तक पदचिह्नों से बिना स्वार्थ के जुडी हुई है
पीठ फेर कर देख लिया था किन्तु रहे असफल हम भूलें
घुटनों की परिणतियाँ निश्चित सदा उदर पर मुडी हुई हैं
यद्यपि अनदेखा करते हैं अपने बिम्ब नित्य दर्पण में
फिर भी चाहत पुरबाई के साथ घड़ी भर को बह जाएँ
फागुन की पूनम कार्तिक की मावस करती है सम्मोहित
एक ज्वार उठता है दूजे पल सहसा ही सो जाता है
लगता तो है कुछ चाहत है मन की व्याकुलता के अन्दर
लेकिन चेतन उसको कोई नाम नहीं देने पाटा है
पट्टी बांधे हुए आँख पर एक वृत्त की परिधि डगर कर
सोचा करते शायद इक दिन हम अपना इच्छित पा जाएँ
1 comment:
इतने दिनों बाद आपका आगमन हुआ इस ब्लॉग पे, मैं तो हर हफ़्ते एक बार देख ही लेती थी...मंदिर की सफाई का शेड्यूल जो है :)
सबसे पहले २००वे मोती पे इस गीतमाला और आपको बधाई!
बहुत सुन्दर गीत, कुछ उदासी लिए हुए, जैसे एक पुराना आईना निकल आया हो कहीं से और ज़िन्दगी उसमें ख़ुद को देख रही हो!
एक प्रवासी मन की कसक उभर आई है इस गीत में गुरुजी!
उभरा करते भाव अनगिनत मन की अंगनाई में पल पल
कोई बैठे पास चार पल तो थोड़ा सा उसे बताएं --- बहुत सुन्दर!
दालानॉ में रखे हुए गमलों में उगे हुए हम पौधे
जिनकी चाहत एक घड़ी तो अपनी धरती से जुड़ पायें --- उफ्फ ये परम सत्य!
होठों को जो सौंप दिए हैं शब्द अजनबी आज समय ने
उनको बिसरा कर बचपन की बोली में कुछ तो गा पायें --- :) आमीन!
एक ज्वार उठता है दूजे पल सहसा ही सो जाता है --- वाह!
लगता तो है कुछ चाहत है मन की व्याकुलता के अन्दर
लेकिन चेतन उसको कोई नाम नहीं देने पाता है ---- अतिसुन्दर!
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यूँ ऐसे नहीं छोड़ दें इस ब्लॉग को...कुछ कुछ लिखते रहें यहाँ भी.
आप ऐसा क्यों नहीं करते कि ई-कविता की समस्यापूर्ती वाली रचनाएँ अगर आप गीतकलश में नहीं डालते तो यहाँ डाल दिया करें.
सादर शार्दुला
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