Monday, August 27, 2018

मदिरा भरती है सुधियाँ की साकी

कहने को तो सब कुछ ही है फिर भी मन रहता एकाकी
सुबह शाम पीड़ा की मदिरा भरती है सुधियाँ की साकी

आइना जो दिखे सामने उसके चित्र   मनोहर   सारे
पार्श्व पुता है किस कालिख से दिखता नहीं किसी को पूरा
कौन देखता सूख सूख कर प्रक्रिया दर्द सहन करने की
ध्यान रहा सरगम बिखराती धुन पर बजता हुआ तम्बूरा

कितनी है मरीचिका सन्मुख उपलब्धि का नाम ओढ़कर
लेकिन सच है स्थूल रूप में कोई एक नहीं है बाकी

सूखे हुए धतूरे पाये सुधा कलश का लिए आवरण
राजपथो से विस्तृत मन पर चिह्न नहीं कदमो का कोई
रही मुस्कुराती कलियां तो शोभा बनी वाटिकाओं  की
जान सका पर कौन पास की गंध कहाँ पर उनकी खोई

रिमझिम को आनंदित होकर रहे देखते देहरी अंगना
सोचा नहीं किसी ने प्राची से ना किरण अभी तक झांकी

इतिहासों में भी अतीत के अंकित नहीं शब्द कोई भी
जिसके लिए बना सीढ़ी मन, वो बढ़ चुका शीर्ष से आगे
संचित जितना रहा पास की छार छार होती गठरी में
दिन के हो गतिमान निमिष सब साथ उसे ले लेकर भागे

सूनी पगडंडी के जैसे बिखरी हुई उमर की डोरी  
कहीं नहीं है दूर दूर तक पगतालियों की छाप जरा भी
२६ अगस्त २०१८ 

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