लगा बढ़ रहे तिमिर रोष में शेष हो चुकी दिन की धड़कन
लगा पंथ पी गया स्वयं ही दिशाबोध के उपक्रम सारे
लगा दृष्टि की सीमाओं में शून्य विजन हो गया अराजक
मरुथल वाली प्यास उगा करती है प्राणों में भिनसारे
लगा ज्ञान अर्जित जितना है मोल नहीं उसका रत्ती भर
लगा सामने की भाषा का परिचित नहीं एक अक्षर भी
नभचुम्बी लहरों में घिर कर बिना नाव डूबे उतराये
एक अकेला चेतन केवल,गोचर नहीं एक जलचर भी
लगा स्वयं से अनायास ही बढ़ने लगी स्वयं की दूरी
लगा कि अपने अन्तर्मन पर अपना ही अधिकार नहीं है
लगा पास में जो कुछ है वह भ्रम है,दूर आज से कट कर
और सत्य की परिभाषा भी दूर क्षितिज के पार कहीं है
किन्तु अचानक लगा भोर की पहली किरण जिसे लिखती है
फूलों की पांखुर पर ठहरी हुई ओस की बून्दों पर आ
संध्या के आँचल पर, लौटा करती हुई नीड़, गौरेय्या
जो अंकित करती जाती है अपने मद्दम सुर में गा गा
रजनी की टहनी पर उगते हुए सितारों के कुसुमों की
पुंकेसर सी छिटकी कणिकायें जिसको प्रतिबिम्बित करतीं
नभ गंगा के तट पर आ नीहारिकायें पनिहारी बन कर
जिसका शीश निरन्तर अपना अर्घ्य चढ़ा कर सिंचित करती
सूरज के रथ की वल्गाओं का इकलौता वही नियंत्रक
वही एक जो चन्दा की किरणों में सहज सुधा भरता है
वही एक जिसके ललाट पर यज्ञ कुंड धधका करते हैं
और वही जो जान बूझ कर के अभिशप्त हुआ करता है
वही एक सम्बल बन बन कर थाम रहा उंगली मुट्ठी में
वही दिशायें सौंप रहा है झंझावातों की नगरी में
वही लिख रहा काल चक्र की धुरियों पर इक नई कहानी
बदल रहा है खाली झोली को अक्षुण्ण एक गठरी में
उसका हर सन्देश लिखा है बही हवाओं की चूनर पर
वही बो रहा है साधों में नये नये संकल्प अछूते
वही पंथ बन बुला रहा है, पांवों में भर नई चेतना
और नीड़ ले रहा प्रतीक्षित,सुखद शान्ति के पल पल गूँथे
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