Friday, March 18, 2011

उतर गया है बुखार सारा पड़े जो जूते तेरी गली में

उतर गया है बुखार सारा पड़े जो जूते तेरी गली में



हजार किस्से जो इश्क वाले पढ़े तो जागा ह्रदय का रांझा

चला लड़ाने वो इश्क अपना चिलम में भर कर छटाँक गाँजा

शहर की सड़कों को छोड़ पकड़ी इक रहगुजर तेरे गांव वाली

तेरे दरीचे तले खड़ा हो हुआ था दीदार का सवाली



उछाले गुल जो थे हाथ रक्खे, खरीदे जितने इक पावली में

उतर गया है बुखार सारा, पड़े यूँ जूते तेरी गली में



जो फूल उछले थे हाथ से वो गिरे थे अब्बू मियाँ के सर पर

नजर उठाई तो मुझको देखा, हुए खड़े वो तुरत तमक कर

बगल में अपने रखी उठाली जो एक बन्दूक थी दुनाली

लगा के कांधे निशाना मुझको बना लिया फिर ट्रिगर संभाली



थी खैर मानी बस भागने में लगाके पर अपनी पगतली में

उतर गया है बुखार सारा, पड़े यूँ जूते तेरी गली में



बनी हुई थी गली के कोने में नांद, गोबर की गैस वाली

गिरा फ़िसले के उसी में, छिप कर थी जान अपनी जरा बचाली

जो निकला पीछे पड़ा अचानक् इक मरखना बैल था वो शायद

हुआ ज्यों मेजर मिलिटरी का, करा ली हफ़्ता भरी कवायद



पड़े थे कुत्ते भी चार पीछे अजब मची ऐसी धांधली में

उतर गया है बुखार सारा, पड़े यूँ जूते तेरी गली में



मुहल्ले भर में थे जितने आशिक, सभी ने पकड़ा गरेबाँ मेरा

लगा के कीचड़ सजाया मेरा था लोरियेल से धुला जो चेहरा

बिठाया फिर लाकर इक गधे पर जुलूस मेरा गया निकाला

फ़टे हुए जूते चप्पलों की गले में मेरे सजाई माला



सजाई सर पे ला एक टोपी सनी हुई सरसों की खली में

उतर गया है बुखार सारा, पड़े यूँ जूते तेरी गली में



गधे की दुम में न जाने किसने लगा दिया फिर कोई पटाखा

दुलत्ती झाड़ी गिराया मुझको उठा के अपनी वो दुम को भागा

संभल उठा मैं ले चोटें अपनी , न जाने क्यों गांव आ गया था

लगा है जैसे अजाने में ही मैं दो किलो भांग खा गया था



उठाईं कसमें पड़ेंगें फिर न इस इश्क की धुन करमजली में

उतर गया है बुखार सारा, पड़े यूँ जूते तेरी गली में



दे नाम तरही का छेड़ डाला है दुखती रग को सुबीरजी ने

बहाना होली का है बनाया दिवाली करने को तीरगी में

मैं दूध हल्दी औ फिटकरी से ही काम अपना चला रहा हूँ

उन्हें तो मल्हार सूझती है, मैं अपना दुखड़ा सुना रहा हूँ



खिलाई तीखी मिरच हरी है, छुपा के मिसरी के इक डली में

उतर गया है बुखार सारा, पड़े यूँ जूते तेरी गली में



होली की गुलाल के साथ



गीतकार





1 comment:

विनोद कुमार पांडेय said...

हजार किस्से जो इश्क वाले पढ़े तो जागा ह्रदय का रांझा

चला लड़ाने वो इश्क अपना चिलम में भर कर छटाँक गाँजा

शहर की सड़कों को छोड़ पकड़ी इक रहगुजर तेरे गांव वाली

तेरे दरीचे तले खड़ा हो हुआ था दीदार का सवाली

बढ़िया और मजेदार रचना..होली के रंगों में डूबी हुई एक बेहतरीन रचना..बधाई