कहकहे तो रह गये सब
योजनाओं में उलझ कर
वक्ष में चुभते रहे
आश्वासनों के शूल तीखे
व्याख्यायें आज के
गणतंत्र की दूजी करें जो
प्रार्थना उससे जरा कुछ
इस समय के साथ सीखे
हो रही नित ही प्रगति तो
है कहाँ इंकार कोई
जो रखा रच राम ने
होता रहा हर बार सोई
फ़ायलों से तो निकल कर
गांव तक सड़कें चली थीं
किन्तु बिजली के अंधेरे में
हमेशा राह खोई
कान पर स्टीरियो के
हेडफोनों को लगाये
व्यस्त दरबारी सुने कब
द्वार कितना कोई चीखे
व्याख्यायें आज के
गणतंत्र की दूजी करें जो
प्रार्थना उससे जरा कुछ
इस समय के साथ सीखे
जी लगाने के लिये ही
था किया जी का प्रबन्धन
लग गया जी, हो गया जी
और विचलित क्या करें हम
मिल नहीं पाता सभी का
जी हमारे एक जी से
इसलिये दो जी बनाये
एक धड़के एक खन खन
रस्सियों को कुंडिय़ों को
जाँच कर टाँके सदा पर
टुटते आये यहाँ पर
बिल्लियों के भाग छींके
व्याख्यायें आज के
गणतंत्र की दूजी करें जो
प्रार्थना उससे जरा कुछ
इस समय के साथ सीखे
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हो रही नित ही प्रगति तो
है कहाँ इंकार कोई
जो रखा रच राम ने
होता रहा हर बार सोई
फ़ायलों से तो निकल कर
गांव तक सड़कें चली थीं
किन्तु बिजली के अंधेरे में
हमेशा राह खोई
आदरणीय राकेश जी, आज़ादी के इतने दिन बाद भी स्थिति भारत की सही नही है| न जाने कितने लोगों को रोज खाली पेट भी सोना पड़ता है बाकी राजनीति का तो हाल ही बेहाल है| ऐसे में गणतंत्र का महत्व कौन ठीक से समझ सकता है|
बहुत बढ़िया रचना प्रस्तुत की आपने...धन्यवाद..प्रणाम
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